Tuesday, 3 June 2014

विदा एक अभूतपूर्व स्त्री को -माया एंजेलू (४ अप्रैल, १९२८ -२८ मई, २०१४ )


मेरे लिए माया एंजेलू को पढ़ना अपनी रगों में दौड़ती ताकत महसूस करना होता था।  बिना लाग-लपेट, सीधे धारदार शब्दों में माया किसी को भी उसकी छिपी हुई ऊर्जा से परिचित करवाने का सामर्थ्य रखती थीं। और, जिस ऊर्जा और शक्ति की बात वे करती थीं, वह बाह्य सौंदर्य या उपलब्धियों से प्राप्त होने वाली नहीं अपितु भीतरी सम्पूर्णता से परिचित होने पर मिलने वाली शक्ति होती। अपनी सु-प्रसिद्द कविता 'फेनोमेनल वुमन ' में वे कहती हैं -

" अब तुम समझे
क्यों मेरा सर झुका हुआ नहीं
मैं चिल्लाती नहीं, उछल नहीं पड़ती
अपनी बात कहने के लिए मुझे चीखना नहीं पड़ता
मैं बताती हूँ , वह खासियत
मेरी एड़ी की चटख चोट में है
मेरे बालों के घुमाव में है
मेरी हथेली में है
मेरे स्नेह की आवश्यकता में है
क्योंकि मैं स्त्री हूँ
अपूर्व स्त्री। "

उनके शब्दों में आई एड़ी की ये चटख खटकार क्या आत्माभिमानी, आत्मविश्वासी स्त्री के पहचाने क़दमों की आहट नहीं? बालों का लचीला मोड़ क्या सौंदर्य और संतुलन की बात नहीं कहता? कहीं भी, कभी भी उनकी कविताओं में स्त्री अपनी नैसर्गिक कोमलता नहीं खोती। उसकी हथेलियों की नरमी, उसके स्नेह की ऊष्मा अपरिवर्तनीय रहती है।  वे जिस स्त्री की बात करती हैं वह वास्तव में अपूर्व है , अपनी क्षमताओं से पूर्णतः परिचित,जागरूक, इच्छाशक्ति से भरपूर, इस स्त्री की कोमलता भी उसकी शक्ति ही है, कमज़ोरी नहीं। स्त्री मुक्ति की सूत्रवाहक सिमोन द बोउवा की तरह वे स्त्री देह को उसके साथ होने वाले अन्याय का उत्तरदायी नहीं ठहरातीं।  वे स्त्री को देह के स्वीकार द्वारा देह से विमुक्त करती हैं। सिमोन का मानना था स्त्री पैदा नहीं होती, बना दी जाती है , इसी सोच में कुछ कदम और आगे बढ़ते हुए माया समाज के द्वारा थोपी हुई किसी भी तरह की असमानता को ओढ़ने से स्पष्ट इंकार करती हैं , और कहती हैं ,"वर्षों पहले मैंने ये निर्णय ले लिया था कि मैं मनुष्यों की बनायी हुई ऐसी किसी भी असमानता को स्वीकार नहीं करूंगी जो मनुष्यों में भेद करती हो, और किसी व्यक्ति की ज़िद, अवधारणा अथवा सुविधा के लिए बनायी गयी हो।"

माया को ग्लोबल रेनेसां वुमन ऐसे ही नहीं कह दिया गया। न केवल वे एक सम्पूर्ण स्त्री की रचना ही करती हैं, वे उसकी सम्पूर्णता को त्यौहार की तरह मनाती भी हैं। उनकी कविताओं में हम आज की स्त्री की सशक्त पदचाप सुनते हैं।  उन्हें पढ़ना बिना किसी कड़वाहट के, बिना किसी कठोरता के, मुक्ति से परिचित होना है। माया के अनुसार ,"स्त्री मुक्ति के आंदोलन में दुखद यह है कि वह प्रेम की आवश्यकता को नहीं मानता। मैं स्वयं ऐसी किसी क्रांति पर विश्वास नहीं करती, जहाँ प्रेम का स्थान न हो।" अपनी कविता "अ कंसीट " में वे एक ऐसे पुरुष का आह्वान करती हैं जो स्त्री का मार्गदर्शन कर सकता हो, तो उसका नेतृत्व भी सहजता से स्वीकार सकता हो -

"मुझे अपना हाथ दो।

मेरे लिए स्थान बनाओ
कि मैं नेतृत्व और अनुसरण कर सकूँ
तुम्हारा
कविता के इस पागलपन से परे।

दूसरों के लिए छोड़ दो
हृदयस्पर्शी शब्दों की निजता
और प्रेम को खोने
से प्रेम

मेरे लिए
मुझे तुम अपना हाथ दो। "

वे अभिभूत करती हैं अपनी ऊष्मा और जिजीविषा से, और आप सोच में पड़ जाते हैं कि इतने उतार-चढ़ावों के बावज़ूद  कैसे कोई ज़िन्दगी से इतना प्यार कर सकता है। तीन वर्ष की आयु में माता-पिता का अलगाव, पारिवारिक टूटन, सात वर्ष की नन्ही आयु में बलात्कार का त्रासद अनुभव, गरीबी, वैवाहिक असामंजस्य, रंगभेद, एकल मातृत्व, माया ने क्या कुछ नहीं देखा। स्ट्रीट-कार चलाने,नाईट-क्लब में नृत्य करने से ले कर इजिप्ट में अंग्रेजी पत्रिका के सम्पादन तक और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित करने, अमेरिका का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार हासिल करने तक उन्होंने एक लम्बा सफर तय किया। माया के स्थान पर और कोई व्यक्ति होता तो बेशक अपना सारा जीवन विषमताओं का रोना रोते हुए गुज़ार सकता था, मगर उन्होंने हर मुश्किल पर मुस्कुराते हुए फ़तेह हासिल की। जीवन के प्रति गहरा लगाव उनकी तमाम कविताओं में उभरता है। कोई भी मुश्किल उनकी आत्मा के प्रकाश और आँखों की रौशनी को धुंधला नहीं कर सकी। उनकी आत्मकथाएं उत्साह, आत्मविश्वास, और जिजीविषा का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। "आई राइज़" में वे लिखती हैं -

"अपने कसैले, विद्रूप झूठों से
तुम इतिहास से मुझे मिटा सकते हो
तुम मुझे मिट्टी में रौंद सकते हो
पर मैं, धूल की तरह, फिर उठती हूँ। "

यह कविता समय और अनुभवों के थपेड़ों से जूझती स्त्री का अट्टहास है। उनकी कविता की स्त्री समाज की विषमताओं को एक चुनौती है। अपने शब्दों के स्पर्श से वे पढ़ने वालों के भीतर भर देती हैं आत्मस्वीकार और जीने-जूझने की लालसा। यों तो उनका स्त्री होना उनकी कविताओं में बार-बार उभरता है और अनुभवों की ज़मीन को सींचता है, किन्तु उनके सरोकार इसी सीमा में नहीं बंधे रह जाते अपितु पूरे समाज को अपनी संवेदना के सूत्र में बांधते हैं। "अ ब्रेव एंड स्टार्टलिंग ट्रुथ"में वे कहती हैं -

"हम इस छोटे, तैरते हुए ग्रह के लोग
जिनके हाथों में वह मारक क्षमता है
कि पलक झपकते ही जीवन से प्राण-रस सोख ले
किन्तु वही हाथ छूते हैं जब असाधारण नरमी से
तो सगर्व तनी गर्दन खुशी-ख़ुशी नत हो जाती है
और घमंडी पीठ सानंद झुक जाती है
ऐसी अव्यवस्था, इन्हीं विरोधाभासों से
हम सीखते हैं कि हम न दानव हैं, न देव। "

माया को पढ़ते हुए अप्रतिम संभावनाओं से भरी एक और स्त्री याद हो आती है। नटी विनोदिनी (१८६३), बांग्ला रंगमंच की अद्भुत प्रतिभा, बारह वर्ष के रंगमंच कार्यकाल में जिन्होंने अपनी गहरी छाप छोड़ी और २३-२४ वर्ष की आयु में मंच से रिश्ता भी तोड़ लिया। वे एक लेखिका भी थीं, कतिपय कविताएं, और दो आत्मकथाएं उन्होंने लिखीं और एक भरी-पूरी आयु जी कर दुनिया से विदा ली। किन्तु उन्हें पढ़ते हुए कहीं एक अवसाद सा भीतर गहराता चला जाता है. उनका अंतिम समय अत्यंत उपेक्षा में गुज़रा, उनके जीते जी ही उन्हें भुला दिया गया था। माया की ही तरह उन्होंने भी गरीबी और संघर्ष से भरा बाल्यकाल देखा, अल्पायु में ही स्वावलम्बी भी हो गयीं किन्तु तब भारतीय समाज स्त्री के स्वावलम्बन के प्रति उतना सहिष्णु नहीं था, उन्हें पराश्रिता होना पड़ा। यह बात आज से डेढ़ सौ वर्ष पूर्व की है, जब रंगमंच को बहुत सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। अतः जितना कुछ वे समाज को अपनी अद्वितीय सृजनशीलता के माध्यम से दे सकती थीं, उतना नहीं दे पायीं। आज भले ही स्थिति काफी बदल गयी है, फिर भी पश्चिम का आत्मस्वीकार पूर्व पूरी तरह नहीं अपना सका है। दरअसल, भारत में जहाँ स्त्री की देह आज भी उसके साथ होने वाले असंख्य अन्यायों की उत्तरदायी है, सिमोन माया से अधिक प्रभावशाली भी हैं और आवश्यक भी. किन्तु वहीँ माया को आने वाले दशकों में और गहराई से महसूस किया जाएगा, और एक दिन इंटीग्रेटेड फेमिनिज़्म का जो स्वप्न माया देखती हैं , और जिस परिवर्तन को वे रचना चाहती हैं, उसे पूर्व भी स्वीकार सकेगा. निश्चित ही यह स्वीकार भावनात्मक तौर पर सशक्त स्त्री-पुरुष संबंधों की नींव डालेगा।


८६ की आयु में २८ मई २०१४ को ज़िन्दगी से बेपनाह प्यार करने वाली माया अपने परिवार और अनगिनत पाठकों को पीछे छोड़ कर बहुत दूर निकल गयीं।  माया , जिनके शब्दों ने स्त्री का खुद से परिचय ही नहीं कराया, उसकी खुद से दोस्ती भी करायी, रौशनी की तरह हमारे साथ चलेंगी। उन्हें सलाम और विनम्र श्रद्धांजलि।

- मीता।