Friday 20 April 2012

घोषणापत्र .

कितना ज़रूरी है अपने अन्दर की आग को जिंदा रखना , खुद को बताना कि कुछ है जो मरा नहीं ... पत्थर नहीं हुआ ... कन्हैयालाल नंदन जी की ये कविता बहुत कुछ याद दिलाती है .

किसी नागवार गुज़रती चीज़ पर
मेरा तड़प कर चौंक जाना
उबल कर फट पड़ना
या दर्द से छटपटाना
कमजोरी नहीं है
मैं जिंदा हूँ
इस का घोषणापत्र है.
लक्षण है इस अक्षय सत्य का
कि आदमी के अन्दर बंद है एक शाश्वत ज्वालामुखी
ये चिंगारियां हैं उसी की
जो यदा कदा बाहर आती हैं
और
ज़िन्दगी अपने पूरे जोर से
अन्दर धड़क रही है -
यह सारे संसार को बताती हैं .                       

शायद इसी लिए जब दर्द उठता है 
तो मैं शर्माता नहीं , खुलकर रोता हूँ 
भरपूर चिल्लाता हूँ 
और इस तरह निस्पंदता की मौत से        
बचकर निकल जाता हूँ 
वरना 
देर क्या लगती है 
पत्थर हो कर ईश्वर बन जाने में 
दुनिया बड़ी माहिर है 
आदमी को पत्थर बनाने में .
अजब अजब तरकीबें हैं उसके पास 
जो चारणी प्रशस्ति गान से 
आराधना तक जाती हैं 
उसे पत्थर बना कर पूजती हैं 
और पत्थर की तरह सदियों जीने का 
सिलसिला बना कर छोड़ जाती हैं .

अगर क़ुबूल हो आदमी को 
पत्थर बन कर 
सदियों तक जीने का दर्द सहना 
बेहिस
संवेदनहीन 
निस्पंद 
बड़े से बड़े हादसे पर 
समरस बने रहना 
सिर्फ देखना और कुछ न कहना 
ओह ! कितनी बड़ी सजा है 
ऐसा ईश्वर बन कर रहना .

नहीं क़ुबूल मुझे कि एक तरह मृत्यु का पर्याय हो कर रहूँ 
और भीड़ के सैलाब में 
चुप चाप बहूँ .

इसी लिए किसी को टुच्चे स्वार्थों के लिए 
मेमने कि तरह घिघियाते देख 
अधपके फोड़े की तपक सा मचलता हूँ 
क्रोध में सूरज सा जलता हूँ ,
यह जो ऐंठने लग जाते है धुंए की तरह 
मेरे सारे अक्षांश और देशांतर 
रक्तिम हो जाते हैं मेरी आँखों के ताने बाने 
फड़कने लग जाते हैं मेरे अधरों के पंख 
मेरी समूची लम्बाई मेरे ही अन्दर 
कद से लम्बी हो कर 
छिटकने लग जाती है....
और मेरी आवाज़ में 
कोई बिजली समाकर चिटकने लग जाती है 
यह सब कुछ न पागलपन है , न उन्माद 
यह है सिर्फ मेरे जिंदा होने की निशानी .
यह कोई बुखार नहीं है 
जो सुखा कर चला आएगा 
मेरे अन्दर का पानी .

क्या तुम चाहते हो 
कि कोई मुझे मेरे गंतव्य तक पहुँचने से रोक दे 
और मैं कुछ न बोलूं?
कोई मुझे अनिश्चय के अधर में 
दिशाहीन लटका कर छोड़ दे 
और मैं अपना लटकना 
चुपचाप देखता रहूँ 
मुंह तक न खोलूं!

नहीं ,यह मुझसे हो नहीं पायेगा 
क्यूंकि मैं जानता हूँ 
मेरे अन्दर बंद है ब्रह्माण्ड का आदिपिंड 
आदमी का आदमीपन,
इसलिए जब भी किसी निरीह को कहीं बेवजह सताया जायेगा 
जब भी किसी अबोध शिशु कि किलकारियों पर 
अंकुश लगाया जायेगा 
जब भी किसी ममता की आँखों में आंसू छलछलायेगा
तो मैं उसी निस्पंद ईश्वर की कसम खा कर कहता हूँ 
मेरे अन्दर बंद वह जिंदा आदमी 
इसी तरह फूट कर बाहर आएगा .

ज़रूरी नहीं है,
कतई ज़रूरी नहीं है 
इसका सही ढंग से पढ़ा जाना 
जितना ज़रूरी है 
किसी नागवार गुज़रती चीज़ पर 
मेरा तड़प कर चौंक जाना 
उबल कर फट पड़ना 
या दर्द से छटपटाना
आदमी हूँ और जिंदा हूँ 
यह सारे संसार को बताना.

            - कन्हैया लाल नंदन .



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